भूमिहार ब्राह्मण की पहचान by Shyamanand Mishra

May 31, 2025 - 17:22
Jun 21, 2025 - 10:50
 0
भूमिहार ब्राह्मण की पहचान by Shyamanand Mishra

जातिवाद एक जहर है। परंतु जब कोई मूर्ख पाखंडी किसी जाति पर प्रश्न खड़ा कर देता है। तब वैसे जाति को अपनी पहचान बताना जरूरी हो जाता है। हमें जाति पहचान से पहले मानव पहचान को समझना होगा। ब्रह्मा जी सृष्टि रचना के साथ ही धरती पर एक “मनु” नाम के जीव को उत्पन्न किया। जिसे “मानव” कहा गया। सृष्टि संचालन के लिए उस मानव को चार भागों में “वरण” यानी चुना गया। इसलिए उसे चार वर्णों का पहचान मिला। उन चार वर्णों को “जानने” से उसे जाति नाम पड़ गया। हम एक बात बताना चाहते हैं:- भगवान विष्णु जी के मुख से- ब्राह्मण, भुजा से- क्षत्रिय, उदर यानि पेट से- वैश्य एवं पैर से- शुद्र को उत्पन्न करके सृष्टि संचालन की संतुलन को कायम किया गया। हमें खेद है- कुछ मूर्खों ने अपने स्वार्थ हित में शूद्र वर्ण को छोटा बता कर सामाजिक संतुलन को खराब कर रहे हैं। वह समझे - जिस तरह मानव जीवन में मुख, भुजा, उदर, एवं पैर सभी जरूरी एवं सम्मानजनक अंग हैं। उसी तरह सृष्टि संचालन में चारों वर्णों महान एवं जरूरी हैं। उसमें खासकर शुद्र वर्णों की महानता सबसे बड़ी है।

क्योंकि- जब कोई किसी को प्रणाम करता है तो वह चरण रूपी शुद्र को ही छूता है। एवं उनकी धुली सबसे ऊपर ब्राह्मण रूपी माथे पर लगाता है।

शुद्र रुपी पैर पर ही अन्य तीन वर्णों रूपी शरीर चलायमान है। अन्यथा उसे पंगु माना जाए। अतः शुद्र अपने आप में महान है।

समय के साथ सृष्टि संचालन में ब्राह्मण वर्ण एवं छत्रिय वर्ण अपने कर्म को भूलकर मनमानी करने लगे। ब्राह्मण अज्ञानी, दुराचारी, पाखंडी, अहंकारी, लोभी बन गए। अब लोग ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने मात्र से ही अपने आप को ब्राह्मण मानने लगे। दूसरी तरफ छत्रिय राजा भी अपना कर्तव्य भूलकर स्वार्थी, निरंकुश शासक बन गया। न्याय करना भूल गया। प्रजा पर अत्याचार करने लगा तब धरती के एक छोर से भगवान परशुराम जी ब्राह्मण होते हुए भी अस्त्र धारण कर क्षत्रिय धर्म से अत्याचारी राजाओं को सबक सिखाएं। तो दूसरी छोर से एक क्षत्रिय राजा विश्वामित्र जी शास्त्र धारण कर ब्राह्मणों को आईना दिखाया। पहचान कर्म से होता है, नहीं की किसी कुल वंश में जन्म लेने मात्र से पहचान बनता है। विश्वामित्र जी अपने कर्म, योग, बल, तपस्या से ब्राह्मण की उपाधि पाए हैं। उन्होंने एक अलग स्वर्ग की रचना किया। वैदिक ऋचाएं छन्द एवं गायत्री मंत्र की रचना कि। जिसे सभी ब्राह्मणों ने स्वीकार किया है। कर्म की शक्ति का आईना सभी ब्राह्मणों को दिखाया फिर भी कुछ मूर्ख पाखंडी ब्राह्मणों ने अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए ब्राह्मण-ब्राह्मण में भेद बता कर अनेकों उपजातियां बनाकर अपने को महान बताने लगा। यहां तक की भूमिहार ब्राह्मणों को ब्राह्मण मानने से ही इनकार करने लगा। उसी पाखंडी मूर्खो के लिए ही यह रचना “भूमिहार ब्राह्मण पहचान” बनाया गया है। आखिर ब्राह्मण किसे कहा जाए एवं भूमिहार ब्राह्मण कौन है।

दूसरी तरफ भगवान परशुराम जी क्षत्रियों की भांति अस्त्र धारण करके अत्याचारी अहंकारी राजाओं को सबक सिखाया। वैसे राजाओं पर आक्रमण करके पराजित कर उनका राज पाठ छीन लिया गया। धन संपदा भू - भाग छीनकर कश्यप ऋषि के साथ सुपात्र सत्कर्मी ब्राह्मणों में बांट दिया गया। उस धन संपदा से शिक्षा, अध्यापन हेतु आश्रम, गुरुकुल, देश समाज सेवा एवं रक्षा हित उपयोग एवं ऋषि मुनि यज्ञ आदि में योगदान किया गया। सुपात्र ब्राह्मणों को भू-भाग मिलने से कृषि क्षेत्र मिला। जीवन यापन सुलभ होने से वैसे ब्राह्मण दान, दक्षिणा पुरोहित कर्म भिक्षाटन, नौकरी का त्याग कर दिया। वैसे ब्राह्मणों की पहचान अयाचक ब्राह्मण से बन गया। वह अपने मेहनत कर्म से जीवन जीना स्वीकार किया। दूसरा - जो भिक्षाटन, दान दक्षिणा, पुरोहित कर्म से धन उपार्जन कर जीवन जीना स्वीकार किया। वह याचक ब्राह्मण की पहचान कायम रखा। कर्म सील सदाचारी अयाचक ब्राह्मण ही आगे भूमिहार ब्राह्मण की पहचान बना। ऐसा प्रसंग स्कंद पुराण के ब्राह्मण खंड में देखने को मिला है। रामायण में भी वर्णित है दशरथ जी वैसे श्रेष्ठ धर्माचरण अयाचक ब्राह्मणों को कर्तव्य निष्ठा ब्राह्मण स्वीकार किया है। इस तरह ब्राह्मणों के श्रेणी में त्यागी, महिपाल, चितपावन, अनावले गालव आदि माने गए हैं।

भूमिहार ब्राह्मण शब्द ब्राह्मण सर का ताज माना जाता है। जिस तरह किसी नाम के पहले कोई शब्द जुड़ता है तो उस शब्द को उस नाम का सम्मान सूचक माना जाता है। इसी तरह ब्राह्मण नाम से पहले भूमिहार शब्द सम्मान सूचक माना गया है। इस तरह का सम्मान पाना भगवान परशुराम जी की कृपा है। भगवान परशुराम जी जब तपस्या के लिए दक्षिणी भारत के पश्चिमी समुद्र तट सहयादी पर्वत पर थे। उसी समय द्रविड़ अयाचक ब्राह्मणों को जंगल पहाड़ काटकर वहां बसाया था। जो बाद में उस भू -भाग पर उनका अधिकार हो जाने के कारण द्रविड़ भूम्याधिकारी ब्राह्मण कहा जाने लगा। वही आगे चलकर भूमिहार ब्राह्मण कहलाया। इसलिए भूमिहार ब्राह्मण अपना जनक भगवान परशुराम जी को ही मानते हैं। भूमिहार ब्राह्मण का एक प्रसंग रामायण काल से भी जुड़ा है। जब भगवान श्री राम जी ने अत्याचारी अधर्मी रावण का वध किया तो दुष्ट मूर्ख पाखंडी ब्राह्मण उसे रावण “ब्राह्मण हत्या” बताने लगे। श्री राम जी को जब यह ज्ञात हुआ तो शंका निवारण हेतु गुरु वशिष्ट जी से परामर्श किये। गुरु वशिष्ट जी खुद ब्राह्मण थे ब्राह्मणों की मूर्खता पर अपना निर्णय देना उचित नहीं समझे इसलिए वह निर्णय के लिए श्री राम जी को कुंबोदर मुनी के पास जाने को कह दिए। कुंबोदर मुनि ने रावण वध को ब्राह्मण हत्या नहीं माना परंतु उचित निर्णय के लिए अगस्त ऋषि के पास जाने को कह दिया अगस्त ऋषि भी रावण वध को ब्राह्मण हत्या नहीं माना लेकिन अंतिम निर्णय भोले बाबा की बातें कह कर जाने को कह दिया। जब श्री राम जी भोले बाबा के पास शंका समाधान का समस्या रखे। तो भोले बाबा श्री राम जी से बोले जिस ब्राह्मण के पास ब्रह्म ज्ञान नहीं होता उसे ब्रह्मपुत्र ब्राह्मण नहीं माना जाता है। आपने एक अज्ञानी अहंकारी रावण का वध किया है। उसे ब्राह्मण हत्या नहीं माना जाएगा। परंतु आप मर्यादा पुरुषोत्तम है। आपने एक समय रावण को ब्राह्मण पंडित स्वीकार कर शिवलिंग की स्थापना करवाया था। अतः मर्यादा रक्षा हेतु ब्रह्म हत्या निवारण यज्ञ, हवन, दान, दक्षिणा ब्राह्मण भोज करावे। जिससे आपका शंका समाप्त हो जाएगा। ऐसा प्रसंग आनंद रामायण में भी वर्णित है। आगे श्री राम जी भोले बाबा के आदेशानुसार गुरु वशिष्ट जी के मार्गदर्शन में सरयू तट पर यज्ञ का आयोजन किया गया। ब्राह्मण भोजन के लिए राज्य के ब्राह्मणों को निमंत्रण भिजवाया गया लेकिन कुछ दुष्ट मूर्ख पाखंडी ब्राह्मण ने श्री राम जी से छल कर दिया। वह नहीं चाहते थे कि श्री राम ब्रह्म हत्या से मुक्त हो जाएं। ब्राह्मणों ने तो निमंत्रण स्वीकार कर लिया परंतु ब्राह्मण भोज में बिना संस्कार पाये अपने बच्चों को भेज दिया। जिससे यज्ञ असफल हो जाए। दुष्ट ब्राह्मण समझ नहीं पाए कि भगवान श्री राम जी से छल करना कितना दुर्भाग्य होगा। गुरु वशिष्ट जी ने वैसे ब्राह्मणों का छल करना श्री राम जी को अवगत करा दिए । ऐसे कुपात्र ब्राह्मण के दुर्भाग्य पर गुरु वशिष्ट जी भी बहुत पछताये। इस समय गुरु वशिष्ट जी ने एक रहस्य भी बताया था- एक समय मैं भी ऐसे कर्महीन दुष्ट याचक ब्राह्मणों से अलग होकर रघुकुल का पुरोहित कर्म को अस्वीकार कर अयाचक ब्राह्मण श्रेणी में जाना चाहा था। परंतु मेरे परमपिता ब्रह्मा जी ने बताया इस रघुकुल में भगवान विष्णु श्री राम जी के रूप में अवतार लेंगे जिसका गुरु बनने का सौभाग्य मिलेगा उसी स्वार्थ हित में रघुकुल का पुरोहित कर्म स्वीकार किया है। दुर्भाग्य है ऐसे ब्राह्मणों पर जो भगवान श्री राम से छल किया है। ऐसा ब्राह्मण ब्राह्मण के नाम पर कलंक कहलाएगा। आगे गुरु वशिष्ट जी अपना गुरु धर्म निभाते उन सभी ब्राह्मण बालकों को श्री राम जी के हाथों ब्राह्मण संस्कार करवा दिए। उन सभी बालकों को यज्ञोपवित्र - यज्ञ में पवित्र करके, उपनयन - अपने विशेष नजरों से देखकर जनेऊ - अपने जन, कूल, वंश से ऊंचा यानी श्रेष्ठ ब्राह्मण बना दिया। इस ब्राह्मण संस्कार के साक्षी खुद ब्रह्मपुत्र वशिष्ठ जी बने। इसलिए आज भी ब्राह्मण संस्कार में साक्षी रूप में एक ब्रह्मा बनाने की परंपरा चली आ रही है। उस ब्राह्मण संस्कार का पहचान कच्चा सूत का एक माला होता है। उसे मंत्रों से पवित्र कर बाएं कंधे पर ब्रह्मनत्व का भार डाला जाता है। इस तरह भगवान श्री राम जी के हाथों ब्राह्मण संस्कार पाकर एक अलग पहचान पाकर श्रेष्ठ ब्राह्मण बन गया। फिर वैसे श्रेष्ठ ब्राह्मण को भोजन दान दक्षिणा देकर यज्ञ सफल हुआ। श्री राम जी ब्रह्म हत्या शंका निवारण से मुक्ति हो गए। ब्राह्मण संस्कार के साथ दान दक्षिणा लेकर जब बालक ब्राह्मण‌ अपने घर पहुंचे तो उनके माता-पिता को समझते देर नहीं लगा। श्री राम जी की यज्ञ सफल एवं अपने बालक को ब्राह्मण संस्कार देखकर खींज में अपने बालकों को अपवित्र बता घर से निकाल दिया। यहां मैं बताना चाहता हूं - जब-जब अपनों के साथ अन्याय हुआ है तब पीड़ितों को सहारा देकर उसे महान बनाया है। जैसे विभीषण को घर से निकलने पर उसे लंका राज्य मिला। पांडवों को घर से निकलने पर उसे हस्तिनापुर का राज्य मिला। सुग्रीव को घर से निकालने पर किष्किंधा का राज्य मिला। बालक ध्रुव को घर से निकलने पर तारामंडल में स्थान मिला। मूर्ख पाखंडी ब्राह्मणों ने अपने बालक को घर से निकाला तो भगवान श्री राम जी से रहने का स्थान, श्रेष्ठ भूमिहार ब्राह्मण का पहचान मिला। घर से निकाले सारे बालक ब्राह्मण पुनः श्री राम जी की शरण में पहुंच गए। जिसे श्री राम जी ने अपने राज्य अयोध्या नगरी में ही बसा दिया। एवं उनके जीवन यापन के लिए अपने भूभाग के कुछ हिस्से की भूमि को सभी ब्राह्मणों में बांट दिया। इस तरह की भूमि रूपी भूषण यानी माला उपहार स्वरूप देकर सम्मानित किया। भूमि की माला यानी हार से सम्मानित करने के कारण उन श्रेष्ठ ब्राह्मण को भूमिहार ब्राह्मण नाम दे दिया गया। उसी समय ब्राह्मण दो भाग में बट गए। याचक जो मांग कर भिक्षाटन पुरोहित कर्म एवं दान दक्षिणा से जीना स्वीकार किया। दूसरा अयाचक जो उन सब को निषेध मानकर अस्वीकार किया एवं भूमि उपार्जन कृषि कर्म से जीवन यापन करते सत्कर्म को अपनाया है। हमें गर्व है हम भूमिहार ब्राह्मण ही अयाचक भूम्याधिकार जमींदार कृषक ब्राह्मण हैं। जिसे भगवान परशुराम जी ने अयाचक धर्माचरण श्रेष्ठ ब्राह्मण का पहचान दिया। उसे श्री भगवान श्री राम जी ने अपने हाथ ब्राह्मण संस्कार देकर भूमि का अधिकार देकर भूमिहार ब्राह्मण नाम दिया है। भूमिहार का एक-एक शब्द महान है भूमि+ हार - भूमि की माला यानी जमींदार वाला ब्राह्मण। भु+मि+हार-नाना प्रकार संदेह को मिटाकर, हरण या नष्ट करने वाला ज्ञानी ब्राह्मण। भु+मि+हा+र - भूमि से मिलकर, स्वयं हाथों से कर्म करते रहने वाला ब्राह्मण। अतः स्पष्ट है - जो भूमि से जुड़कर ब्राह्मण धर्म का पालन करना स्वीकार किया वहीं भूमिहार ब्राह्मण है। कुछ इतिहासकारों ने भी भूमिहार ब्राह्मण पहचान पर मोहर लगाया है। 

अरस्तु के अनुसार- ई० पू० 331 में सिकंदर से लोहा लेने वाला वीर ब्राह्मण भूमिहार ब्राह्मण ही था। जो बाद में उनके अत्याचार से बचने के लिए कृषक खेती को अपनाया था। 13वीं सदी में फिरोज तुगलक ने ब्राह्मणों पर जजिया टैक्स लगाया था। उससे बचने के लिए भूमि से जुड़कर खेती कर पहचान छुपाया था। वही भूमिहार ब्राह्मण कहलाया। वूलन सर्वे के अनुसार 1528 ई० में उत्तर प्रदेश मदारपुर पर बाबर आक्रमण में वीर सैनिक ब्राह्मणों ने वीरता के साथ लड़ा था। बाद में बाबर द्वारा ऐसे ब्राह्मणों पर काफी अत्याचार हुआ। उनका भूमि छीन लिया गया। तब जान बचाकर ऐसे ब्राह्मण  बिहार और बंगाल में आकर बस गये। इसलिए ऐसे ब्राह्मण को पश्चिम से आने के कारण पश्चिमा ब्राह्मण, तो भूमि खेती करने के कारण भूमिहार ब्राह्मण कहा जाने लगा। राजा कनिष्क ने बौद्ध धर्म रक्षा हेतु वीर सैनिक ब्राह्मणों को नियुक्त कर रखा था। जो बाद में बौद्ध धर्म पतन के बाद उन ब्राह्मणों का उस भूमि पर अधिकार हो गया। इसलिए उस क्षेत्र वैशाली सारनाथ विक्रमशिला आदि में आबादी ज्यादा दिखे हैं। अंग्रेज लेखक मी० विक्स ने कहा था- एक मर्दाना प्रजाति के कृषक ही भूमिहार ब्राह्मण है। 1880 ईस्वी में सर रिसर्च टेंम्पलु वाट ने भारत भ्रमण के समय कहा था प्रतिष्ठित जमींदार वीरता वाले ही भूमिहार ब्राह्मण हैं। 1911 ईस्वी में राजा जयसिंह ने अपने राजसूय यज्ञ रक्षा हेतु वीर ब्राह्मणों को नियुक्त किया। उनके कुशल क्षमता एवं ईमानदारी से खुश होकर अपने राज्य में भूमि देकर बसा लिया था। वह भूमिहार ब्राह्मण ही था। इसलिए उनकी आबादी ग्वालियर बनारस अजमेर में ऐसे ब्राह्मण देखने को मिलते है। वे विपरोतम परिचय पुस्तक में स्पष्ट है- भूमिहार ब्राह्मण कोई जाति नहीं एक विशेष पहचान वाला ब्राह्मण है उसी को आगे बढ़ाते इसी समाज के काशी राजा ने वर्ष 1890 ईस्वी में एक भूमिहार ब्राह्मण महासभा का स्थापना किया। इसी समाज के बेतिया राजा एक महासभा का आयोजन कर सैनिक ब्राह्मण पत्रिका के द्वारा भूमिहार ब्राह्मण वर्ग पर मुहर लगा दिया। जिसे स्वामी सहजानंद सरस्वती जी ने ब्रह्महर्षी वंश विस्तार पुस्तक रचनाकर एक नया संचार ला दिए।

भगवान परशुराम जी ने एक ब्राह्मण से छत्रिय का पहचान बनाया। विश्वामित्र जी एक क्षत्रिय से ब्राह्मण का पहचान बनाएं। भगवान श्री कृष्ण जी एक क्षत्रिय से यदुवंशी का पहचान बनाएं। विभीषण राजा बलि प्रह्लाद आदि ने राक्षस वंश से एक विष्णु भक्त का पहचान बनाया। इसी तरह एक ब्राह्मण ने  अयाचक कृषक, धर्माचरण, भूमिहार ब्राह्मण का पहचान बनाया है। इस वर्ग से बाणभट्ट महाकश्यप हर्षवर्धन संत रामानुज समुद्रगुप्त हुए तो आधुनिक भारत के लोकमान्य तिलक गोपाल कृष्ण गोखले, संत विनोबा जी, राष्ट्रकवि दिनकर जी, राम वृक्ष बेनीपुरी, स्वामी सहजानंद सरस्वती, टेकारी राजा, काशी राजा, बेतिया राजा, श्री कृष्णा सिंह, मृदुला सिंह, मनोज सिंह आदि ने इस समाज का सम्मान बढ़ाया है।

इस समाज में कुछ अनभिज्ञ उपनाम भी हैं। दक्षिणी भारत में द्रविड़ अयाचक ब्राह्मण, अनावले, भाटी, देसाई। उत्तर प्रदेश में त्यागी तिलक राय, पंजाब हरियाणा में मोहन देसाई वैद्य महाराष्ट्र में गडकरी फडणवीस एवं मध्य प्रदेश में बाजपेई आडवाणी आदि है। कुछ राजशाही परिवार से रहने के कारण शाही, शाह आदि उपनाम भी देखने को मिलता है। अतः स्पष्ट है भूमिहार ब्राह्मण एक पहचान है जिसमें चारों वर्णों का गुण यानी सर्वगुण वाले ब्राह्मण ही भूमिहार ब्राह्मण है। 

निष्कर्ष यदि कोई मूर्ख सूर्य की ओर थूकता है तो वह थूक स्वत उनके ऊपर ही आकर गिरता है उसी तरह भूमिहार ब्राह्मण पर प्रश्न उठाने वाले मूर्ख पर खुद के चरित्र पर ही प्रश्न खड़ा दिखता है। वैसे इस संकलन का उद्देश्य भी यही बनाया गया है। 

भूमिहार ब्राह्मण है मेरा नाम। अयाचक ब्राह्मण से है मेरा पहचान। देश समाज धर्म रक्षा करना है मेरा काम। जो करेगा मुझे बदनाम। उसे परमपिता से पग पग मिलेगा अपमान। भगवान परशुराम श्रीराम की हैं हम संतान। ब्रह्मा पुत्र ब्राह्मण से है मेरा पहचान। जाती नहीं कर्म है महान। ऐसा मानने वालों को मेरा शत-शत प्रणाम।

What's Your Reaction?

like

dislike

love

funny

angry

sad

wow

Shyamanand Mishra "मैं एक स्वतंत्र भारतीय नागरिक हूं। जो समाज, संस्कृति, राजनीति और मानवीय मुद्दों पर निष्पक्ष दृष्टिकोण के साथ अपनी राय रखता हूं। मेरा मानना है कि राय विचार देना सिर्फ ख़बर देने का माध्यम नहीं, बल्कि ज़िम्मेदारी और बदलाव का जरिया है। सत्य की खोज और संवेदनशीलता के साथ जन-मन की आवाज़ बनना ही सही उद्देश्य है।" "यह मेरे अपने व्यक्तिगत विचार और भावनाएँ हैं। इनका उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचाना नहीं है, और न ही ये किसी संस्था, व्यक्ति या समूह का आधिकारिक दृष्टिकोण दर्शाते हैं। कृपया इन्हें एक स्वतंत्र सोच के रूप में देखा जाए।