अंग्रेजों के टाइम में कैसी होती थी डॉक्टरी की पढ़ाई, जानें कब पास हुआ था भारत का पहला MBBS बैच?
भारत में मेडिकल शिक्षा का सफर बेहद रोचक और प्रेरणादायक रहा है. आज हम जिस आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था को देखते हैं, उसकी जड़ें सदियों पुरानी हैं. चरक और सुश्रुत के समय से लेकर आयुर्वेद, सिद्धा और यूनानी पद्धति तक, उपचार की अपनी-अपनी धारा बहती रही. लेकिन ब्रिटिश काल के आगमन के साथ ही चिकित्सा शिक्षा और उपचार पद्धति में बड़ा बदलाव आया, जिसने भारत में डॉक्टर बनने के सपनों को नई दिशा दी. भारत का पहला एमबीबीएस बैच 1839 में पास हुआ था. आइए जानते हैं कि मेडिकल शिक्षा पद्धति में समय के साथ कैसे बदलाव हुए. भारत में चरक और सुश्रुत के समय आयुर्वेद, सिद्धा और यूनानी जैसी स्वदेशी चिकित्सा पद्धतियों से उपचार किया जाता था, जो उस समय काफी प्रचलित थीं. लेकिन ब्रिटिश काल के दौरान पश्चिमी उपचार पद्धति के जरिए मेडिकल ट्रेनिंग की शुरुआत हुई. मेडिकल बोर्ड के गठन की शुरुआत साल 1822 में ब्रिटिश सर्जनों के मेडिकल बोर्ड ने भारत सरकार के सचिव को एक पत्र लिखा, जिसमें भारतीयों के लिए व्यवस्थित मेडिकल शिक्षा प्रणाली शुरू करने की सिफारिश की गई थी. इसका उद्देश्य सार्वजनिक स्वास्थ्य को बनाए रखना और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए योग्य मेडिकल स्टाफ तैयार करना था. बदलाव की जरूरत क्यों पड़ी? ब्रिटिश, भारतीयों की पारंपरिक चिकित्सा पद्धति पर भरोसा नहीं करते थे. इस कारण वे यूरोप से डॉक्टर लेकर आए. 18वीं सदी के मध्य में लगातार हुए युद्धों में यूरोपीय कंपनी के सर्जन ज्यादातर सैन्य सेवाओं में व्यस्त रहते थे. ऐसे में ईस्ट इंडिया कंपनी में भर्ती भारतीय सैनिकों को ब्रिटिश सर्जनों से इलाज मिलने लगा. एक दिलचस्प पहलू यह भी था कि कई उच्च जाति के भारतीय सैनिक यूरोपीय दवाइयां लेने से कतराते थे. इसका कारण धार्मिक मान्यताएं और नई पद्धति पर अविश्वास था. बावजूद इसके, धीरे-धीरे पश्चिमी चिकित्सा पद्धति भारत में फैलने लगी और मेडिकल शिक्षा का एक नया अध्याय शुरू हुआ, जिसने भविष्य में डॉक्टरों की एक नई पीढ़ी को जन्म दिया. विदेश जाकर डॉक्टर बनने का सपना कुछ साल बाद चार जांबाज युवा चक्करबत्ती, भोला नाथ बोस, द्वारका नाथ बोस और गोपाल चंदर सील समुद्र पार कर डॉक्टर बनने के सपने के साथ विदेश गए. उस दौर में विदेश जाना, खासकर पढ़ाई के लिए, सामाजिक और सांस्कृतिक चुनौतियों से भरा था. लेकिन इन युवाओं ने हिम्मत दिखाई और भारतीय मेडिकल शिक्षा को अंतरराष्ट्रीय मंच तक पहुंचाया. यह भी पढ़ें-पीरियड्स लीव को लेकर दिल्ली में NSUI का जोरदार प्रदर्शन, जानें किन यूनिवर्सिटीज में पहले से है यह सुविधा

भारत में मेडिकल शिक्षा का सफर बेहद रोचक और प्रेरणादायक रहा है. आज हम जिस आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था को देखते हैं, उसकी जड़ें सदियों पुरानी हैं. चरक और सुश्रुत के समय से लेकर आयुर्वेद, सिद्धा और यूनानी पद्धति तक, उपचार की अपनी-अपनी धारा बहती रही. लेकिन ब्रिटिश काल के आगमन के साथ ही चिकित्सा शिक्षा और उपचार पद्धति में बड़ा बदलाव आया, जिसने भारत में डॉक्टर बनने के सपनों को नई दिशा दी.
भारत का पहला एमबीबीएस बैच 1839 में पास हुआ था. आइए जानते हैं कि मेडिकल शिक्षा पद्धति में समय के साथ कैसे बदलाव हुए. भारत में चरक और सुश्रुत के समय आयुर्वेद, सिद्धा और यूनानी जैसी स्वदेशी चिकित्सा पद्धतियों से उपचार किया जाता था, जो उस समय काफी प्रचलित थीं. लेकिन ब्रिटिश काल के दौरान पश्चिमी उपचार पद्धति के जरिए मेडिकल ट्रेनिंग की शुरुआत हुई.
मेडिकल बोर्ड के गठन की शुरुआत
साल 1822 में ब्रिटिश सर्जनों के मेडिकल बोर्ड ने भारत सरकार के सचिव को एक पत्र लिखा, जिसमें भारतीयों के लिए व्यवस्थित मेडिकल शिक्षा प्रणाली शुरू करने की सिफारिश की गई थी. इसका उद्देश्य सार्वजनिक स्वास्थ्य को बनाए रखना और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए योग्य मेडिकल स्टाफ तैयार करना था.
बदलाव की जरूरत क्यों पड़ी?
ब्रिटिश, भारतीयों की पारंपरिक चिकित्सा पद्धति पर भरोसा नहीं करते थे. इस कारण वे यूरोप से डॉक्टर लेकर आए. 18वीं सदी के मध्य में लगातार हुए युद्धों में यूरोपीय कंपनी के सर्जन ज्यादातर सैन्य सेवाओं में व्यस्त रहते थे. ऐसे में ईस्ट इंडिया कंपनी में भर्ती भारतीय सैनिकों को ब्रिटिश सर्जनों से इलाज मिलने लगा.
एक दिलचस्प पहलू यह भी था कि कई उच्च जाति के भारतीय सैनिक यूरोपीय दवाइयां लेने से कतराते थे. इसका कारण धार्मिक मान्यताएं और नई पद्धति पर अविश्वास था. बावजूद इसके, धीरे-धीरे पश्चिमी चिकित्सा पद्धति भारत में फैलने लगी और मेडिकल शिक्षा का एक नया अध्याय शुरू हुआ, जिसने भविष्य में डॉक्टरों की एक नई पीढ़ी को जन्म दिया.
विदेश जाकर डॉक्टर बनने का सपना
कुछ साल बाद चार जांबाज युवा चक्करबत्ती, भोला नाथ बोस, द्वारका नाथ बोस और गोपाल चंदर सील समुद्र पार कर डॉक्टर बनने के सपने के साथ विदेश गए. उस दौर में विदेश जाना, खासकर पढ़ाई के लिए, सामाजिक और सांस्कृतिक चुनौतियों से भरा था. लेकिन इन युवाओं ने हिम्मत दिखाई और भारतीय मेडिकल शिक्षा को अंतरराष्ट्रीय मंच तक पहुंचाया.
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