राष्ट्रपति और राज्यपाल को समय सीमा में बांधने से जुड़े सवालों पर संविधान पीठ करेगी विस्तृत सुनवाई, केंद्र और राज्यों को नोटिस जारी
क्या राष्ट्रपति और राज्यपाल को विधेयकों पर फैसला लेने के लिए समय सीमा के दायरे में लाया जा सकता है? सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की अध्यक्षता वाली 5 जजों की संविधान पीठ ने इस पर केंद्र सरकार और सभी राज्य सरकारों को नोटिस जारी किया है. यह सुनवाई राष्ट्रपति की तरफ से भेजे गए प्रेसिडेंशियल रेफरेंस के आधार पर शुरू की गई है. अगस्त में मामले की अगली सुनवाई होगी. संविधान के अनुच्छेद 143 (1) के तहत प्रेसिडेंशियल रेफरेंस भेज कर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से यह 14 सवाल किए हैं :- 1. जब संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल को कोई विधेयक भेजा जाता है, तो उनके सामने क्या संवैधानिक विकल्प होते हैं? 2. क्या राज्यपाल भारत के अपने विकल्पों का इस्तेमाल करते समय मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से बंधे हैं? 3. क्या राज्यपाल की तरफ से अनुच्छेद 200 के उठाए गए कदमों पर कोर्ट में सुनवाई हो सकती है? 4. राज्यपाल को अदालती कार्रवाई से मुक्त रखने वाला अनुच्छेद 361 क्या अनुच्छेद 200 के तहत उनकी तरफ से लिए फैसले की न्यायिक समीक्षा पर प्रतिबंध लगाता है? 5. जब संविधान में समय सीमा नहीं दी गई है, तब क्या न्यायिक आदेश के ज़रिए राज्यपाल की शक्तियों के प्रयोग की समय सीमा तय की जा सकती है? क्या उन शक्तियों के प्रयोग के तरीके को भी निर्धारित किया जा सकता है? 6. संविधान के अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति अपने विवेक का इस्तेमाल कर फैसला लेते हैं? क्या उनकी इस शक्ति पर कोर्ट में सुनवाई हो सकती है? 7. जब संविधान में अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति के फैसले की कोई समय सीमा तय नहीं की गई है, तब क्या न्यायिक आदेश के ज़रिए ऐसा किया जा सकता है? 8. क्या अनुच्छेद 201 के तहत फैसला लेने के लिए राष्ट्रपति को अनुच्छेद 143 के तहत रेफरेंस भेज कर सुप्रीम कोर्ट की सलाह लेने की ज़रूरत है? 9. अनुच्छेद 200 और अनुच्छेद 201 के तहत राज्यपाल और राष्ट्रपति को विधेयकों पर निर्णय लेना होता है. तब वह कानून का रूप लेते हैं. किसी विधेयक के कानून बनने से पहले कोर्ट का उस पर विचार करना क्या संवैधानिक दृष्टि से उचित है? 10. सुप्रीम कोर्ट को न्याय के लिए विशेष शक्ति देने वाले अनुच्छेद 142 का प्रयोग क्या राष्ट्रपति और राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र में आने वाले मामलों के लिए भी किया जा सकता है? 11. क्या विधानसभा की तरफ से पास विधेयक संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल की सहमति के बिना कानून बन सकता है? 12. जब मसला संवैधानिक लिहाज से अहम हो, तब क्या सुप्रीम कोर्ट की किसी बेंच को अनुच्छेद 145(3) के तहत उसे कम से कम 5 जजों की बेंच को नहीं भेज देना चाहिए? 13. क्या अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल सुप्रीम कोर्ट किसी कानून या संवैधानिक प्रावधान के विपरीत जाकर कर सकता है? 14. अनुच्छेद 131 में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच विवादों को हल के लिए सुप्रीम कोर्ट के दखल का प्रावधान है. क्या यह अनुच्छेद बाकी मामलो में सुप्रीम कोर्ट को दखल से रोकता है? तय प्रक्रिया के तहत सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ऐसे मामलों पर विचार के लिए पांच जजों की संविधान पीठ का गठन करते हैं. सभी प्रश्नों पर गहराई से विचार करने के बाद संविधान पीठ अपनी राय व्यक्त करती है. चीफ जस्टिस भूषण रामकृष्ण गवई ने अपनी अध्यक्षता में जो 5 जजों की बेंच गठित की है, उसके बाकी सदस्य हैं- जस्टिस सूर्य कांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी एस नरसिम्हा और जस्टिस ए एस चंदुरकर. अप्रैल में तमिलनाडु के 10 विधेयकों के राज्यपाल और राष्ट्रपति के पास लंबित होने के मामले पर सुप्रीम कोर्ट के 2 जजों की बेंच ने एक फैसला दिया था. कोर्ट ने सभी विधेयकों को परित करार दिया था. साथ ही, यह भी कहा था कि राज्यपाल और राष्ट्रपति को एक तय समय सीमा के भीतर ही फैसला लेना चाहिए. अगर ऐसा नहीं होता तो कोर्ट दखल दे सकता है. इस फैसले को सरकार और न्यायपालिका के बीच टकराव के तौर पर देखा जा रहा था. तत्कालीन उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इसकी कड़े शब्दों में आलोचना की थी. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट को विशेष शक्ति देने वाले अनुच्छेद 142 की तुलना मिसाइल से की थी. कानून के जानकारों में सरकार के पास इस मामले में पुनर्विचार याचिका दाखिल करने या प्रेसिडेंशियल रेफरेंस भेजने का विकल्प था. सरकार ने दूसरा विकल्प चुना. अब संविधान पीठ विस्तृत विचार के बाद इस पर राय व्यक्त करेगी.

क्या राष्ट्रपति और राज्यपाल को विधेयकों पर फैसला लेने के लिए समय सीमा के दायरे में लाया जा सकता है? सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की अध्यक्षता वाली 5 जजों की संविधान पीठ ने इस पर केंद्र सरकार और सभी राज्य सरकारों को नोटिस जारी किया है. यह सुनवाई राष्ट्रपति की तरफ से भेजे गए प्रेसिडेंशियल रेफरेंस के आधार पर शुरू की गई है. अगस्त में मामले की अगली सुनवाई होगी.
संविधान के अनुच्छेद 143 (1) के तहत प्रेसिडेंशियल रेफरेंस भेज कर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से यह 14 सवाल किए हैं :-
1. जब संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल को कोई विधेयक भेजा जाता है, तो उनके सामने क्या संवैधानिक विकल्प होते हैं?
2. क्या राज्यपाल भारत के अपने विकल्पों का इस्तेमाल करते समय मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से बंधे हैं?
3. क्या राज्यपाल की तरफ से अनुच्छेद 200 के उठाए गए कदमों पर कोर्ट में सुनवाई हो सकती है?
4. राज्यपाल को अदालती कार्रवाई से मुक्त रखने वाला अनुच्छेद 361 क्या अनुच्छेद 200 के तहत उनकी तरफ से लिए फैसले की न्यायिक समीक्षा पर प्रतिबंध लगाता है?
5. जब संविधान में समय सीमा नहीं दी गई है, तब क्या न्यायिक आदेश के ज़रिए राज्यपाल की शक्तियों के प्रयोग की समय सीमा तय की जा सकती है? क्या उन शक्तियों के प्रयोग के तरीके को भी निर्धारित किया जा सकता है?
6. संविधान के अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति अपने विवेक का इस्तेमाल कर फैसला लेते हैं? क्या उनकी इस शक्ति पर कोर्ट में सुनवाई हो सकती है?
7. जब संविधान में अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति के फैसले की कोई समय सीमा तय नहीं की गई है, तब क्या न्यायिक आदेश के ज़रिए ऐसा किया जा सकता है?
8. क्या अनुच्छेद 201 के तहत फैसला लेने के लिए राष्ट्रपति को अनुच्छेद 143 के तहत रेफरेंस भेज कर सुप्रीम कोर्ट की सलाह लेने की ज़रूरत है?
9. अनुच्छेद 200 और अनुच्छेद 201 के तहत राज्यपाल और राष्ट्रपति को विधेयकों पर निर्णय लेना होता है. तब वह कानून का रूप लेते हैं. किसी विधेयक के कानून बनने से पहले कोर्ट का उस पर विचार करना क्या संवैधानिक दृष्टि से उचित है?
10. सुप्रीम कोर्ट को न्याय के लिए विशेष शक्ति देने वाले अनुच्छेद 142 का प्रयोग क्या राष्ट्रपति और राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र में आने वाले मामलों के लिए भी किया जा सकता है?
11. क्या विधानसभा की तरफ से पास विधेयक संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल की सहमति के बिना कानून बन सकता है?
12. जब मसला संवैधानिक लिहाज से अहम हो, तब क्या सुप्रीम कोर्ट की किसी बेंच को अनुच्छेद 145(3) के तहत उसे कम से कम 5 जजों की बेंच को नहीं भेज देना चाहिए?
13. क्या अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल सुप्रीम कोर्ट किसी कानून या संवैधानिक प्रावधान के विपरीत जाकर कर सकता है?
14. अनुच्छेद 131 में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच विवादों को हल के लिए सुप्रीम कोर्ट के दखल का प्रावधान है. क्या यह अनुच्छेद बाकी मामलो में सुप्रीम कोर्ट को दखल से रोकता है?
तय प्रक्रिया के तहत सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ऐसे मामलों पर विचार के लिए पांच जजों की संविधान पीठ का गठन करते हैं. सभी प्रश्नों पर गहराई से विचार करने के बाद संविधान पीठ अपनी राय व्यक्त करती है. चीफ जस्टिस भूषण रामकृष्ण गवई ने अपनी अध्यक्षता में जो 5 जजों की बेंच गठित की है, उसके बाकी सदस्य हैं- जस्टिस सूर्य कांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी एस नरसिम्हा और जस्टिस ए एस चंदुरकर.
अप्रैल में तमिलनाडु के 10 विधेयकों के राज्यपाल और राष्ट्रपति के पास लंबित होने के मामले पर सुप्रीम कोर्ट के 2 जजों की बेंच ने एक फैसला दिया था. कोर्ट ने सभी विधेयकों को परित करार दिया था. साथ ही, यह भी कहा था कि राज्यपाल और राष्ट्रपति को एक तय समय सीमा के भीतर ही फैसला लेना चाहिए. अगर ऐसा नहीं होता तो कोर्ट दखल दे सकता है.
इस फैसले को सरकार और न्यायपालिका के बीच टकराव के तौर पर देखा जा रहा था. तत्कालीन उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इसकी कड़े शब्दों में आलोचना की थी. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट को विशेष शक्ति देने वाले अनुच्छेद 142 की तुलना मिसाइल से की थी. कानून के जानकारों में सरकार के पास इस मामले में पुनर्विचार याचिका दाखिल करने या प्रेसिडेंशियल रेफरेंस भेजने का विकल्प था. सरकार ने दूसरा विकल्प चुना. अब संविधान पीठ विस्तृत विचार के बाद इस पर राय व्यक्त करेगी.
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