क्या जीन एडिटिंग से खत्म हो सकता है डाउन सिंड्रोम? जापानी वैज्ञानिकों की नई खोज ने जगाई उम्मीद
जापान के मिए यूनिवर्सिटी के साइंटिस्ट्स ने डाउन सिंड्रोम को लेकर एक क्रांतिकारी कदम उठाया है. इस यूनिवर्सिटी की रिसर्च टीम ने CRISPR-Cas9 तकनीक के जरिए मानव कोशिकाओं के एक्स्ट्रा 21वें क्रोमोजोम को हटाने में सफलता पाई है. यह वही क्रोमोसोम है जिसकी एडिशनल एपियरेंस से डाउन सिंड्रोम जैसी अनुवांशिक स्थिति उत्पन्न होती है. यह प्रयोग अभी केवल लैब लेवल पर किया गया है, लेकिन इसके नतीजे चौंकाने वाले हैं. कोशिकाओं में दिखा सामान्य व्यवहार रिसर्च टीम ने एलील स्पेसिफिक एडिटिंग टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया है, जिसमें सिर्फ एक्स्ट्रा क्रोमोसोम को निशाना बनाकर हटाया गया है. जबकि बाकी दो सामान्य क्रोमोसोम सुरक्षित रहे. इस बदलाव के बाद प्रभावित कोशिकाओं ने सामान्य कोशिकाओं जैसा व्यवहार करना शुरू कर दिया. वह तेजी से बढ़ने लगी और उन्हें जैविक तनाव भी काम देखा गया.लेबोरेटरी से असल जीवन तक पहुंचने में अभी दूरी यह रिसर्च लैबोरेट्री लेवल पर एक बड़ी सफलता मानी जा रही है, लेकिन इससे वास्तविक जीवन में लागू करना आसान नहीं है. एक्सपर्ट्स का कहना है कि शरीर के अंदर जीन एडिटिंग टूल्स को सुरक्षित और सटीक तरीके से पहुंचना अभी एक गंभीर चुनौती है. कुछ एक्सपर्ट्स का कहना है कि यह रिसर्च केवल एक चिकित्सीय चमत्कार नहीं बल्कि है उन बच्चों के संज्ञानात्मक और विकासात्मक भविष्य को भी बदल सकता है जो डाउन सिंड्रोम से पीड़ित होते हैं. हालांकि भ्रूण या शुरुआती स्टेज के भ्रूणीय कोशिकाओं में इस तकनीकी का इस्तेमाल कई जोखिमों को जन्म दे सकता है. जैसे अनचाहे जेनेटिक बदलाव, बड़ी डिटेलेशन या मोजेइज्म जैसी स्थितियां. सवालों को नहीं किया जा सकता अनदेखा इस तकनीक के सफल होने की संभावना में कई नैतिक बहसों को भी जन्म दिया है. अगर किसी व्यक्ति की आनुवंशिक स्थितियों को जन्म से पहले ही बदलने की क्षमता हमारे पास आ जाए तो क्या ऐसा करना चाहिए या फिर यह मानव विविधता और स्वीकार्यता के मूल्यों के विरोध होगा. इसे लेकर कुछ एक्सपर्ट्स कहते हैं कि भले यह तकनीकी मेडिकल दृष्टिकोण से उम्मीद जगाती हो. लेकिन हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि डाउन सिंड्रोम वाले लोग आज समाज का सक्रिय हिस्सा है जो शिक्षा, काम और सामाजिक जिम्मेदारियां में योगदान दे रहे हैं. उन्हें सिर्फ उनकी स्थिति से परिभाषित नहीं किया जा सकता है. साइंस और संवेदना दोनों का हो संतुलन साइंटिस्ट उन्नति और मानवीय करुणा के बीच संतुलन बहुत जरूरी है. माना जा रहा है इस तकनीकी की दिशा तय करते समय केवल वैज्ञानिक दक्षता नहीं बल्कि एक समावेशी और संवेदनशील नैतिक संवाद भी माना जा रहा है. ताकि यह तकनीक मानव व्यवस्था को चुनौती देने की बजाय उसे स्वीकारने का जरिया बन सके. ये भी पढ़ें- घर में ही बनाएं ये 4 सुपर टेस्टी अचार, जो भी खाएगा चाटता रह जाएगा उंगलियां

जापान के मिए यूनिवर्सिटी के साइंटिस्ट्स ने डाउन सिंड्रोम को लेकर एक क्रांतिकारी कदम उठाया है. इस यूनिवर्सिटी की रिसर्च टीम ने CRISPR-Cas9 तकनीक के जरिए मानव कोशिकाओं के एक्स्ट्रा 21वें क्रोमोजोम को हटाने में सफलता पाई है. यह वही क्रोमोसोम है जिसकी एडिशनल एपियरेंस से डाउन सिंड्रोम जैसी अनुवांशिक स्थिति उत्पन्न होती है. यह प्रयोग अभी केवल लैब लेवल पर किया गया है, लेकिन इसके नतीजे चौंकाने वाले हैं.
कोशिकाओं में दिखा सामान्य व्यवहार
कोशिकाओं में दिखा सामान्य व्यवहार
रिसर्च टीम ने एलील स्पेसिफिक एडिटिंग टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया है, जिसमें सिर्फ एक्स्ट्रा क्रोमोसोम को निशाना बनाकर हटाया गया है. जबकि बाकी दो सामान्य क्रोमोसोम सुरक्षित रहे. इस बदलाव के बाद प्रभावित कोशिकाओं ने सामान्य कोशिकाओं जैसा व्यवहार करना शुरू कर दिया. वह तेजी से बढ़ने लगी और उन्हें जैविक तनाव भी काम देखा गया.
लेबोरेटरी से असल जीवन तक पहुंचने में अभी दूरी
यह रिसर्च लैबोरेट्री लेवल पर एक बड़ी सफलता मानी जा रही है, लेकिन इससे वास्तविक जीवन में लागू करना आसान नहीं है. एक्सपर्ट्स का कहना है कि शरीर के अंदर जीन एडिटिंग टूल्स को सुरक्षित और सटीक तरीके से पहुंचना अभी एक गंभीर चुनौती है. कुछ एक्सपर्ट्स का कहना है कि यह रिसर्च केवल एक चिकित्सीय चमत्कार नहीं बल्कि है उन बच्चों के संज्ञानात्मक और विकासात्मक भविष्य को भी बदल सकता है जो डाउन सिंड्रोम से पीड़ित होते हैं. हालांकि भ्रूण या शुरुआती स्टेज के भ्रूणीय कोशिकाओं में इस तकनीकी का इस्तेमाल कई जोखिमों को जन्म दे सकता है. जैसे अनचाहे जेनेटिक बदलाव, बड़ी डिटेलेशन या मोजेइज्म जैसी स्थितियां.
सवालों को नहीं किया जा सकता अनदेखा
इस तकनीक के सफल होने की संभावना में कई नैतिक बहसों को भी जन्म दिया है. अगर किसी व्यक्ति की आनुवंशिक स्थितियों को जन्म से पहले ही बदलने की क्षमता हमारे पास आ जाए तो क्या ऐसा करना चाहिए या फिर यह मानव विविधता और स्वीकार्यता के मूल्यों के विरोध होगा. इसे लेकर कुछ एक्सपर्ट्स कहते हैं कि भले यह तकनीकी मेडिकल दृष्टिकोण से उम्मीद जगाती हो. लेकिन हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि डाउन सिंड्रोम वाले लोग आज समाज का सक्रिय हिस्सा है जो शिक्षा, काम और सामाजिक जिम्मेदारियां में योगदान दे रहे हैं. उन्हें सिर्फ उनकी स्थिति से परिभाषित नहीं किया जा सकता है.
साइंस और संवेदना दोनों का हो संतुलन
साइंटिस्ट उन्नति और मानवीय करुणा के बीच संतुलन बहुत जरूरी है. माना जा रहा है इस तकनीकी की दिशा तय करते समय केवल वैज्ञानिक दक्षता नहीं बल्कि एक समावेशी और संवेदनशील नैतिक संवाद भी माना जा रहा है. ताकि यह तकनीक मानव व्यवस्था को चुनौती देने की बजाय उसे स्वीकारने का जरिया बन सके.
लेबोरेटरी से असल जीवन तक पहुंचने में अभी दूरी
यह रिसर्च लैबोरेट्री लेवल पर एक बड़ी सफलता मानी जा रही है, लेकिन इससे वास्तविक जीवन में लागू करना आसान नहीं है. एक्सपर्ट्स का कहना है कि शरीर के अंदर जीन एडिटिंग टूल्स को सुरक्षित और सटीक तरीके से पहुंचना अभी एक गंभीर चुनौती है. कुछ एक्सपर्ट्स का कहना है कि यह रिसर्च केवल एक चिकित्सीय चमत्कार नहीं बल्कि है उन बच्चों के संज्ञानात्मक और विकासात्मक भविष्य को भी बदल सकता है जो डाउन सिंड्रोम से पीड़ित होते हैं. हालांकि भ्रूण या शुरुआती स्टेज के भ्रूणीय कोशिकाओं में इस तकनीकी का इस्तेमाल कई जोखिमों को जन्म दे सकता है. जैसे अनचाहे जेनेटिक बदलाव, बड़ी डिटेलेशन या मोजेइज्म जैसी स्थितियां.
सवालों को नहीं किया जा सकता अनदेखा
इस तकनीक के सफल होने की संभावना में कई नैतिक बहसों को भी जन्म दिया है. अगर किसी व्यक्ति की आनुवंशिक स्थितियों को जन्म से पहले ही बदलने की क्षमता हमारे पास आ जाए तो क्या ऐसा करना चाहिए या फिर यह मानव विविधता और स्वीकार्यता के मूल्यों के विरोध होगा. इसे लेकर कुछ एक्सपर्ट्स कहते हैं कि भले यह तकनीकी मेडिकल दृष्टिकोण से उम्मीद जगाती हो. लेकिन हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि डाउन सिंड्रोम वाले लोग आज समाज का सक्रिय हिस्सा है जो शिक्षा, काम और सामाजिक जिम्मेदारियां में योगदान दे रहे हैं. उन्हें सिर्फ उनकी स्थिति से परिभाषित नहीं किया जा सकता है.
साइंस और संवेदना दोनों का हो संतुलन
साइंटिस्ट उन्नति और मानवीय करुणा के बीच संतुलन बहुत जरूरी है. माना जा रहा है इस तकनीकी की दिशा तय करते समय केवल वैज्ञानिक दक्षता नहीं बल्कि एक समावेशी और संवेदनशील नैतिक संवाद भी माना जा रहा है. ताकि यह तकनीक मानव व्यवस्था को चुनौती देने की बजाय उसे स्वीकारने का जरिया बन सके.
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